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अन-क्रियाकोष। हास्य अरति अरु शोक भय, बहुरि गलानि बखान । तजिये षट हास्यादिका, मोह प्रकृति दुखदानि ॥७॥ वेद मेद हैं तीन फुनि, पुरुष नपुंसक नारि । चेतनतें न्यारे लखौ, जिनवानी उर धारि ।। ७८॥ एक समय इक जीवके, उदय होय इक वेद । सातें गनिये वेद इक, यह गाव निरवेद ॥७६॥ संख असंख अनन्त हैं, इनि चउदहके भेद । अन्तरंग ये सग तजि, करिये कर्म "विछेद ।। ८०॥ अन्तर मंग तजे बिना, होई न सम्यक ज्ञान ।। बिना ज्ञान लोभ न मिटे, इह भाषे भगवान ॥८॥ अत सुनि बाहर संगजे, दसधा हैं दुखदाय । मुनिने त्यागे सर्व हो, दीये दोष उड़ाय ।। ८२ ।। क्षेत्र वास्तु चौपद द्विपद, धान्य द्रव्य कुप्यादि । भाजन आसन सेज ये, दस परकार अनादि । ८३ ॥ तो संग चउवीस सह, भजे नाथ चरबीस। समें साज शिवलोकको, सबमें बड़े मुनीस ॥ ८४ ॥ मूर्छा ममता महु तजी, तृष्णादई उडाय । नगन दिगम्बर भव तिरें, ध न बहुरी काय ॥८५॥ श्रावकके ममना अलप, बहुतृष्णाको त्याग । राग नहीं पर द्रव्यसों, एक धर्मको राग ।। ८६ ।। धरम हेत खरचे दरव, गर्व नाहिं मन माहिं। सब जीवनसो मित्रता, दुराचारता नाहिं ।। ८७ ॥ जीव दयाके कारणे, तजौ बहुत आरम्भ ।