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सम्यक वर्णन । सम्यक वर्णन
सवैया ३१ सा। अष्ट मूलगुण कहे वारह वरत कहे कहे सप द्वादश जु समभाव साधका । सम सान कोऊ और सर्वको जु सिरमोर, याही करि पावै ठऔर आतम अराधका। विषमता त्यागि अर समताके पंथ लागि, छाडौ सब पाप जेहि धर्मके विराधका ! ग्यारै पडिमा जु मेड दोषनिको करै छेद, धार नर धीर धरि सकै नाहिं वाधका HE२॥ दोहा~पडिमा नाम जु, तुल्यको, मुनिमारगकी तुल्य ।
मारग श्रावकको महा, भा देव अतुल्य ॥ ३॥ बहुरि प्रतिज्ञाकों कहैं, पडिमा श्री भगवान । होहि प्रतिज्ञा धारका, श्रावक समतावान ॥६४। मुनिके लहुरे वीर हैं, श्रावक पडिमाधार । मुनि श्रावकके धर्मको, मूल जु समकित सार ॥ ५ ॥ सम्यक चउ गतिके लहैं, कहै कहालो कोइ । पै तथापि वरणन करूं, सवेगादिक सोइ ॥ ६ ॥ सम्यकके गुण अतुल हैं, श्रावक तिर नर होय। मुनिव्रत मिनखहि धारही, द्विज छत बाणिज होय ॥ संवेगो निरवेद अर, निंदन गरुहा जानि । समता भक्ति दयालता, बात्सल्यादिक मानि ॥ ६८ ॥ धर्म जिनेसुर कथित जो, जीवदयामय सार । वासौं अधिक सनेह है, सो संवेग विचार ।। ६६ ॥ भव तन भोग समस्तत, बिरकत भाव अखेद । सो दूजो निरवेद गुण, करै कर्मको छेद ॥ १०॥