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जन-क्रियाकोष मन इंद्रीको जु निरोधा, सो दम कहिये प्रतिबोधा । समतें क्रोधादि नशाया, दमतें भोगादि भगाया ॥८॥ सम दम निवारण प्रदाया, काहे धारौं नहि भाया । सब जैन सूत्र समरूपा, समरूप जिनेश्वर भूपा ॥४॥ समताधर चउविधि संधा, समभाव भवोदधि लंघा । पूरण सम प्रमुके पइये, लिनतं लघु मुनिके लइये । ८५॥ तिनश्रावकके नूना सम करें कर्मगण चूना । श्रावकतै चौथे ठाणे, कछुइक घट तो परमाणे ॥८६॥ सम्यक विन समता नाहीं,सम नाहिं मिथ्यामत माहीं। ममता है मोह सरूपा, समता है ज्ञान प्ररूपा ॥८॥ सब छोडि विषमता भाई, ध्यावौ समना शिवदाई। समकी महिमा मुनि गावै,समको सुरपति शिर नावै ॥८॥ समसौं नहिं दूजौ जगमे, इह सम केवल जिनमगमें । सम अर्थ सकल तप वृत्ता, सम है मारग निरवृत्ता ॥८॥ जो प्राणी समरम भावै, सो जनम मरण नहिं पावै। यम नियमादिक जे जोगा, सबमैं ममभाव अलोगा ॥१०॥ समको जस कहत न आवै, जो सहस जीभकरि गावै । अनुभव अमृतरस चाखै, मोई समता दिढ राखै ॥६॥
इति समभाव निरूपण।