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समभावपणन। जिनके दिन महसरीया, सोलो सदगुलकी सीखा ॥ बदै निदे सो सरिखौ, समभावन सन जिन परिलो। समतारस पुरण प्रगयौ, मिथ्यात महाभम विषटयौ ०२॥ तिनकी ललि शांत सुमुद्रा, रौद्र त्यागे अति खा। चीता मृगवर्गन मारे, मति प्रीति परस्पर चारै ॥७॥ गड़ा नहिं मग बिनास, नागा नहिं दादर नासे। उन्दर मारै न विडाला, पलिनसौं प्रीति विशाल tam तिर विद्याधर नर कोई सुर मसुर न वापक होई। कार गव न दंडे, दुरजन दुरजनता छ l काहूके चोर न पैसे, चोरी होवे कहु कैसे। ललि समता धारक मुनिकों, त्यागै पापी पानिकों "" दाकिनके बोर न चालें, हिंसक हिंसा सब टा। भूता नहि लागन पावे, राक्षस व्यंतर भजि जाये In मंतर न चलें मुकिसीके ये हैं परभाव रिषीके। कोहू काडू नहिं मारे, सब जीव मित्रता धारै ७वा हरिनी मृगपतिके छावा, देखें निज सुत समभावा । पापनि गाय चुखावे, मार्जारी हंस खिलावै ॥७॥ ल्पाली मर मोढ़ा इकठे, नाहर बकरा ईठे। काईको जार न चाले, समभाव दु:खनिकों हालै ॥८॥ हम सुविद्यारूपा, निरदोष विराग मनूगा। मति शांतिभावको मूहा,समसौं नहिं शिव मनुरcm नहि समता पर है कौक,सबभुतिको सार होड। जो ममता परित्यागा, सो करिये सम बड़भागा II