SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 110
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जन-क्रिया कोष। परक्षेत्र जु तें वस्तु मंगावै सो गुणवतको दूषण लावै। जो परमाण बाहिरा ठौरा, सा परक्षेत्र कहैं जषमौरा ॥७॥ तीजो दोष शब्दविनिपाता, ताको भेद सुनो तुम भ्राता। जय नहीं परि शब्द सुनावै, सो निरदूषण बत्त न पावै ॥ ८॥ चौथा दूषण रूपनिपाता रूप दिखावण जागि न बाता। पंचम पुगदलक्षेप कहावै, कंकर आदिक जोहि वगावै ॥६॥ भावार्थ दिशा अर देशको जावजीव नियम कियो छ, तीहूमें वर्ष छमासी दुमासी मामी पाखी नेम धार्योछ, तीमें भी निति नेम करै छ । सो निति नेम मरजादामे क्षेत्र निपट थोडा राख्यो सो गमन तौ मरजादा बाहिर क्षेत्रमे न करै परि हेलौ मारि सबद सुनावै अथवा जिह तरफ जिह प्रातीसों प्रयोजन होय तिह तरफ झाकि झरोकादिकमे बैठि करि सिंह प्राणीनें अपना रूप दिखाय प्रयोजन जणावे अथवा कंकर इत्यादि बगाय पैलाने मतलब जतावै सो अतीचार लगाय मलीन करें। बेसरी छंद। अब सुनि वरत आठमो भाई, तीजो गुणत्रत अति सुखदाई । अनरथदण्ड पापको त्यागा, यह व्रत धारे ते बडभागा॥ ॥ पंच भेद हैं अनरथदोषा, महापापके जानहु पोषा। पहलो दुर्ध्यान जु दुखदाई, ताको भेद सुनों मनलाई ॥११॥ परऔगुण गहणा उरमाही, परलक्ष्मी अभिलाष धराहीं। परनारी अवलोकन इच्छा, इन दोषनतें सुधी अनिच्छा ॥१२॥ कलह करावन करन जु चाह, बहुरि अहेराकरन उमा है।
SR No.010271
Book TitleJain Kriya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy