SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०६ बारह व्रत वर्णन। ए पाचू दोषा जे ठारें, ते प्रत निर्मल निश्चल घारें ॥६५॥ श्री कहिये निजज्ञान विभूती, शुद्ध चेतना निज अनुभूती । केवल सत्ता शुद्ध स्वभावा, आतमपरणति रहित विभावा ॥१६॥ ता परणतिसो रमिया जोई, कर्मरहित श्रीराम जु होई। तिनकी आज्ञानुरूप जु धर्मा, धारे ते नाशें सव भर्मा ।। 8७॥ अब सुनि व्रत्त सातमों भाई, जो दूजो गुणवत्त कहाई । दिशा तणों कियौ परिमाण, तामे देश प्रमाण बखाणा ।। ६८॥ देश नगर अर गाव इत्यादी, अथवा पाटक हाट जु आदी। पाटक कहिये अध जु प्रामा, करै प्रमाण व्रती गुण धामा ।। जिन देशनिरू धर्म जु नाहीं, जाय नहीं निन देशनि माहीं। जब वह बहु देशनिते छूटै, तब यासों अति लोभ जु टूटै ।१०॥ बहु हिंमा आरंभ निवत्यौ, जीवदया मन माहि प्रवत्यौ । विश अरु देशनिको जु प्रमाणा, लोभ नाशने निमित्त वखाना ।।। जिनवर मुनिवर अर जिन धामा, जिनप्रतिमा अर तीरथठामा । यात्राकाज गमन निरदोषा, दीप अढ़ाई लौं व्रतपोसा ॥२॥ अतीचार पाचों तजि धीय जाकरि देश व्रत है धीरा। चित परसल रोकनके कारन, मन वच तन मरजादा धारन ।। कबहूं नहिं उलंधि सु जाई, अर हाते आसा न धराई। प्रेष्य नाम है सेतसको जी, सहि पठावौ जो अधिको जी ॥४॥ वस्तु भेजिवौ लोभ निमित्ता, प्रेष्य प्रयोग दोष है मित्ता। तातें जेतौ देश जु राख्यौ, भृत्य भेजिवौ हातक राख्यौ ॥॥ आगे वस्तु पठेवौ नाहीं, इह बातें धारौ उर माहीं। दुजो दोष आनयन त्यागै, सब हि ब्रत विधानहिं लागे ॥६॥
SR No.010271
Book TitleJain Kriya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy