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जैन-क्रियाकोष। बिना प्रतिज्ञा फल नहिं कोई, रहै बात परगट अब लोई । अतींचार पांचों तजि बीरा, छछो बूत धारौ चित धीरा ॥४॥ पहले ऊरध व्यतिक्रम होई, ताको त्याग करौ श्रुति जोई। गिरि परि अथवा मिंदर ऊपरि, चढनो परई ऊरध भूपरि ॥८५॥ उरघको संख्या है जेती, ऊंची भूमि चढे बुध तेती। आगै चढिवेको जो भावा, अतीचार पहलो सु कहावा ॥८६॥ दूजो अधव्यतिक्रम तजि मित्रा, जा तजिये व्रत होइ पवित्रा । वापी कूप खानि अर खाई, नोची भूमि माहिं उतराई ॥ ८॥ तौ परमाण उलधि न उतरौ, अधिकी भू उतरया व्रत खतरौ। अधिक उतरनेको जो भावा, अतीचार दूजो सु कहावा ॥८॥ तीजो नियंग व्यतिक्रम त्यागौ, बब छट्टे व्रतमाहीं लगौ। अष्ट दिशा जे दिशि विदिशा है, तिरछे गमने माहिं गिना हैं ।। वहुरि सरङ्गादिकमें जावौ, सोऊ तिरछे गमन गिनावौ । चउदिशि चउविदिशा परमाणा, ताको नाहिं उलंघ बखाणा ॥१०॥ जो अधिके जावेको भावा, अतीचार नीजो मू कहावा । चौथो क्षेत्रवृद्धि है दूषन, ताको त्याग करें बूतभूषन ।।६।। जेती दूर जानका नेमा, सो स्वक्षेत्र भाषे अतिप्रेमा । जो स्वक्षेत्रनें वाहिर ठोग, सो परक्षेत्र कहावे औरा ॥२॥ जो परक्षेत्र थकी इह संधा, राखे सठमति हिग्दे अंधा । हाते क्रय विक्रय जो राखै, क्षेत्रवृद्धि दूषण गुरु भाखे ॥६॥ पञ्चम अतिचारको नामा, स्मृत्यंतर भार्स श्रीरामा । ताको अर्थ सुनों मनलाई, करि परमाण भूलि ओ जाई १६४|| जानत और अजानत मुढा, सो नहिं होई व्रत आरूढा ।