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________________ बारह व्रत वर्णन। बरत शील पारें सुधी, ते पावें सुखराशि। कहे प्रत्त अब शीलके, भेद कहाँ परकाशि ॥ ७३ ॥ पहलो गुणवत गुणमई, छट्टो व्रत सो जानि । दसों दिशा परमाण करि, श्रीजिन आज्ञा मानि ॥७॥ तीन गुणव्रतमें प्रथम, दिग्व्रत कह्यौ जिनेश । ताहि घरें श्रावकवती, त्यागें दोष असेस ॥ ७ ॥ लोभादिक नाशन निमित, परिग्रहको परिमाण । कीयो तैसे ही करौ, दिशि परमान सुजाण ॥७६ ।। बेसरी छन्द। पूरब आदि दिशा चउ जानौं, ईशानादि विदिगि चउ मानौं। अर्ध उरध मिलि दस दिशि होई, करै प्रमाण व्रती है सोई ॥७॥ सीलवान व्रत धारक भाई, जाके दरशनतें अघ जाई । या दिशिको एतोही जाऊं, आगे कबहु न पाव घराऊं ॥७८॥ या विधिसो जु दिशाको नेमा, करै सुबुद्धि धरि व्रतसो प्रेमा । मरजादा न उलंघे जाई, दिग्ब्रत धारक कहिये सोई ॥७॥ दसो दिशाकी संख्या धारे, जिती दूरलौ गमन विचारे। आगै गये लाभ है भारी, तोपनि जाय न दिग्व्रत धारी ॥८॥ सतोषी समभावी होई, धनकू गिनै धूरिसम सोई । गमनागमन तज्यो बहु जाने, दया धर्म धाग्यो उर खाने ॥८॥ लौन हिंसा तिनको अधिकी, त्यागी जिन तृष्णा-धन निधिकी। कारण हेत चालनो परई, तौ प्रमाण माफिक पग धरई ॥२॥ मेह डिगे परि पैंड न एका, जाय सुबुद्धी परम विवेका। बूत करि नाश करै अघ कर्मा, प्रगटे परम सरावक धर्मा ॥३॥
SR No.010271
Book TitleJain Kriya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size7 MB
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