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बारह ब्रत वर्णन । हारि जाति चितवं काहूका, कर नहीं भक्ति जु साहूको ॥१॥ चौर्यादिक चितवै मनमाहीं, दुरगति पानै शक नाही। दूजो पापतनों उपदेशा, सो अनरथ तजि भगै जिनेशा ॥१४॥ कृषि पसु धन्धा वणिज इत्यादी, पुरुष नारि संजोग करादी। मंत्र यंत्र तंत्रादिक सर्वा, तजौ पापकर वचन सगर्वा ॥१५॥ सिंगारादिक लिखन लिखावन, राजकाज उपदेश बतावन । सिलपि करम आदिक उपदेशा, तजो पाप कारिज उपदेशा १६ तजहू अनरथ विफला चरज्या, सो त्यागौ श्रीगुरुने बरज्या । भूमिखनन अरु पानी ढारन, अगनि प्रजालन पवन विलोरन ।१७ वनसपनी छेदन जो करनों, सो विफला चरज्याकों धरनों। हरित तृणाकुर दल फल फूला, इनको छेदन अघको मूला||१८|| अब सुनि चोथो अनरथदण्डा जा करि पावौ कुगति प्रचण्डा । दया दान करिता जु निरंतर इह बाता धारौ उर अन्तर। हिंसादान नाम है जाको, त्याग करो तुम बुध जन ताको ॥१९॥ छुरी कटारी खडगर भाला, जनी आदिक देहिन लाला ॥२०॥ विष नहिं देवौ अगनि न देनी, हल फाल्यादिक दे नहिं जैनी। धनुषवान हि देनों काको, जो दे अघ लगै अति ताकों ॥२२॥ हिंसाकर जेती वस्तू, मो देवो तौ नाहिं प्रसस्तू । बध बंधन छेदन उपकरणा, तिनको दान दयाको हरणा ॥२२॥ पापवस्तु मांगी नहिं देवे, जो देनै सो शुभ नहिं लेग। आमें जीवनिको उपकारी मौ देवौ सबकों हितकारी ॥२३ ।। अन्नवस्त्र जल औषध आदि देवौ श्रुतमें कटौ अनादि । दान समान न भाजु कोई दयादान सबके सिर होई ॥२४॥