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________________ ११२ जैन-क्रियाकोष । मंजारादिक दुष्ट सुभावा, मास अहारी मलिन कुभावा । तिनको धारन कबहू न करनो, जोवनिकी हिंसा- डरनो ॥२५॥ नखिया पखिया हिसक जेही, धर्मवत पाल नहि तेही। आयुधिको व्यापार न कोई, जाकरि जीवनको बध होई ॥२६॥ सीसा लोह लाख साबुन ए, बनिजजाग नहिं अघकारन ए, जती बस्तु सदोष बताई, तिनको बनिज त्यागे भाई ॥२ण। धान पान मिष्टादि रसादिक, लबण हींग घृत तेल इत्यादिक । दल फल तृण पहुपादिक कदा, मधु मादिक बिणिजै मतिमंदा ॥ अतर फुलेल सुगन्ध समस्ता, इनको बणिज न हो प्रशस्ता। तथा आयोग्य मोम हरतारें हिंसाकारन उद्यम टारै ॥२६॥ बध बधनके कारिज जेते, त्यागहु पाप बिणज तुम तेते । पशु पखो नर नारी भाई, इनको बिणज महा दुखदाई ॥३०॥ काष्टादिकको बिणज न करें, धर्म अहिंसा उरमें धरै। ए सब कुविणन छाडै जोई, धरम सरावक धार सोई ॥३१॥ मूलगुणनिमे निंदे एई, अष्टम व्रतमें निंदे तेई । बार बार यह बिणज जु निंद्या, इनकू त्यागै ते नर बंथा ॥३२॥ सुवरण रूपा रतन प्रसस्ता, रूई कपरा मादि सुवस्ता । बिणज करै तौ ए करि मित्रा, सब त अति हो अपवित्रा ॥ सुनो पाचमो और अनर्था, जे शठ सुनहि मिथ्यामन अर्था । एह कुसुत्र सुणवौ अघ मोटा, और पाप सब या छोटा ॥३॥ पाप सकल उपको या सेती, उप कुबुधि जगतमे तेती। भडिम बात सुनो मति भाई, वसीकरण आदिक दुखदाई ।। बसीकरण मनको करि संता, मन जीत्या है ज्ञान अनंता ।।
SR No.010271
Book TitleJain Kriya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size7 MB
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