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जैन-क्रियाकोष। सर्व ही, जिनमारगके दास । देव धर्म गुरु तत्वको, श्रद्धा अविचल भास ॥ २५ ॥ अनेकात सरधा लिया, शातभाव घर धीर । सप्तमंग वानी रुचै, जिनवरकी गंभीर ॥ २६ ॥ जीव अजोवादिक सगै, जिन आज्ञा परवान । जाने ससै रहित जो धारै दृढ सरधान ॥२७॥ सप्त तत्त्व षट द्रव्य अर, नव पदार्थ परतक्ष । अम्तिकाय हैं पंच ही तिनको धारै पक्ष ॥ २८ ॥ इष्ट पंच परमेष्टिको, और इष्ट नहिं कोय । मिष्ट वचन बोले सदा, मनमै कपट न होय ॥ २६ ॥ पुत्रकलत्रादिक उपरि, ममता नाहिं बखान ।। ३० ॥ तृण सम माने देहको, निजगम जाने जीव । धरै महा उपशातता, त्यागै भाव अजीव ॥ ३१ ॥ से विषयनिको तऊ, नही विषयसू राग। वरते गृह आरम्भमै , धारि भाव वैराग।। २ । कब दशा वह होयगी, धरियेगो मुनिवृत्त । अथवा श्रावक वृत ही, करियेगो जु प्रवृत्त ॥३॥ धृग धृग अवतभावको या मम और न पाप । क्षणभंगुर विषया सबै देहि कुगनि दुख नाप ॥ ३५ ॥ इहे भावना भावनो, भोगनित जु उदाम । मी मम्यकदरसा भया पावे तत्त्वविलास ॥ ३५ ॥ सप्तम गुणके ग्रहण को, गगी होय अपार । माधुनिकी सेवा करै, सो सभ्यक्रगुण धार ॥ ३६॥ माधर्मिनमो नेह अति नहिं कुटुम्बसौं नेह । मन नहि मोह-विलासमै, गिने न अपनी देह ।। ३७ ॥ जीव अनादि जु कालको, बस देहमे एह । बंध्यौ कर्म प्रपचसौं, भवमैं, भ्रमो अच्छेह ।३८। त्याग जोग जगजाल सब, लेन जोग निज भाव । इह जाके निश्चै भयो, सो सम्यक परभाव । भिन्न भिन्न आने सुधी, जड-चेनको रूप। त्यागै देह सनेह जो, भावै भाव अनूप ४०॥ क्षार नीरकी भांति ये, मिलैं जीव अर कर्म । नाहिं तथापि मिलें कदै