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जैन-क्रियाकोष
आयु-कर्म थोरौ रहै, तब ज्ञानी प्रत धीर । जावोजीव तजे सब, अनसन पान जगवीर ॥ ४५ ॥ मरणावधि अनसन करें, सो निरवधि उपवास । जे धाएँ उपवासलों, तेजु करें अव नाश ॥४६॥ करते थके उपासकों, जे न तज आरम्भ । जग धन्धेमें चित घरौं, तजे न शठमति दम्भ ॥४७॥ माहगहल चचल दशा, लहै न फल उपवास । कछुयक काय कलेशको, फल पावै जगवास ॥४८॥ कर्मनिर्जरा फल सही, सो नहिं तिनको होइ । इह निश्चै सतगुरू कहैं, धारै बुधजन सोइ ॥ ४६ ॥ धन्य धन्य उपवास है, देइ सासतौ वास । अब सनि अवमोदर्य को, दूजी तप सुखरास ॥ ५० ॥ जो मुनि करें अनादरी, तजि अहारकी वृद्धि । प्रामुक योग सु अलप अति, ले अहार तप-वृद्धि ॥५१॥ करें सु अवमोदर्यको, कर निर्जरा हेत । नहिं कीरतिको लोभ है, सो मुनि जिन पद लेत ॥५२॥ श्रावक होइ ज ब्रत कर, लेइ अलप आहार ।। जप स्वाध्याय सु ध्यान है, मिटै अनेक विकार ॥५३॥ सध्या पोसह पडिक्रमण, तासौं सधै अदोष । जो अहार बहुत न कर, धरै महागुण कोष ॥ ५४ ॥ के अनसन अघ नाश कर, के यह अवमोदर्य । इन सम और न जगविर्ष, ए तप अति सौंदय ॥ ५५ ॥ इन बिन कदै न जो रहै, सो पावै व्रतशुद्धि ।