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बारहनत वर्णन। भ्यान कारवें जो कर, सो होवै प्रतिबुद्ध ॥५६॥ मरु ओ मायावी अषम, धरि कीरतिको लोमा कर सु अलप अहारको, सो नहिं होइ अछोम ॥ ५ ॥ अथवा जो शठ अंध थी, यह विचार जियमाहि। कर सु अलप अहार जो, सोह व्रतधरि नाहिं ॥५॥ जो करिहों जु महार अति, तो गैसो तेसो हि । मिलिहैं मोदक स्वादकरि, तातें इह न भलो हि ॥५६॥ अलप महार जु खाहुंगो, बहुत रसीली वस्तु । इहै भावरि जो कर, सो नहिं प्रत प्रशस्त ॥६० ॥ मिष्ट भोज्य अथवा सुमस,कारण अल्प अहार। कर न फल तपको प्रबल, कर्म निर्जराकार ॥ ६॥ केवल आतमध्यानके, अर्थ कर प्रतधार। के स्वाध्याय सु व्रतके, कारण अल्प अहार ॥ ६२॥ अल्प अहारथकी बुघा, रोग न उपजै क्वापि । निद्रा मनमथ आदि सहु, नाहिं पारै जु कदापि ॥६३॥ बह, अहार सम दोष नहिं; महा रोगकी खानि । निद्रा मनमथ प्रमुख जो, उपजे पाप निदान ॥३४॥ लोकमाहिं कहवत इहै, मरै मूढ़ अति खाय । के बिन बुद्धि जु बोझकों, भोंदू मरे उच्चाय ॥६५॥ सानै धनों न खाइवौ, करियो अलप महार। याहि करें सतगुरु सदा, ब्रतको बीज अपार ॥३६॥ व्रतपरिसंख्या तीसरौ तप साकों सु विचार । सुन सुगुरु माई भया, परम निर्जराकार ॥