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________________ Re uniaNALANummam बारह प्रत वर्णन ।' मुनि भाषक दोडके गाया, धर्मध्यान सो नहीं पाया। मुनिको पूरणाप प्रधानों, पावकके कछु नून बखानों ॥४०॥ मुनिके पति ही निश्चलताई श्रावकके किंचित विस्ताई। परिग्रह चंचलताको मूला, जाते धर्म न होय सभूला ॥४२॥ तृष्णा छाड़ी बहुतेरी, करि मरजादा परिप्रहकेरी। सा धर्मव्यानके पात्रा, आवक हू जाणों गुनगाना ॥४२॥ धर्मध्यानके प्यारि स्वरूपा और हु श्रीगुरु कहे अनूपा । इक पिंडस्थ पदस्थ द्वितीया, रूपस्था तीली गनि लीया ॥४३॥ रूपातीत चतुर्थम भेदा, हर धर्म को पाप उछेदा । इनके भेद सुनौ मन लाये, जाकरि सुकलध्यामकू पाये ॥४४ पिंडमाहिं सब लोक विभूती, चितवं ज्ञानी निज मनुभूती । पिंडलोकको राजा चेतन, जाहि स्पर्श सकैन अचेतन ॥४५॥ ताकोध्यान धरै जो ध्यानी, सो होवे केवल निज हानी। बहुरि पदस्थ ध्यान बुध धारे, जिनभाषित पद मन्त्र विचारे पंच परमगुरुमंत्र अनादि, ध्यावे धीर त्याग क्रोधादी । नमोकारके अक्षर भाई, पैंतीसौ पूरण सुखदाई ।।४७॥ पोड़स अक्षर मंत्र महंता, पंच परमगुरु नाम कहन्ता। मंत्र षडाक्षर अ रहत सिद्धा, अ सि आ उ सा पंच प्रबुद्धा नमोकारके पैतिष अक्षर, प्रसिद्ध छै मह घोड़स मक्षर । भरहन सिद्ध मायरि उवझाया, साहू अते अंक गिनाया । वह साक्षर बरहंत अपौजू, सिद्ध नाम उरमाहि थपो जू अक्षर भूलो मति भाई, सिद्ध-सिद्ध यह जाप कराई 1.01 मंत्र इकार है मोंकारा, जानीज इह प्रणव अपारा।
SR No.010271
Book TitleJain Kriya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size7 MB
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