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जैन-क्रियाकोष। एहि भावना मावे जोई, धर्मध्यानको ध्याता सोई ॥२८॥ सर्वमीवसों मैत्रीभावा, गुणी देखि चितमैं हरपाल । दुखी देखि करुणा उर माने, सखि विपरात राग नहिं ठाने द्वेष जु नाहिं धरैजु महन्ता, है मध्यस्थ महा गुणवन्ता । बहुरि धर्मके चारि जु पाया, ते समयकदष्टिनिकों भाया ३० आझाविचय कहा जोई, श्रीजिनवरने भाष्यौ सोई। ताका इढ़ परतीति करै जो, संसय विभ्रम मोह हरे जो ३१ कम नाशको उद्यम ठाने, रागद्वपकी परणति माने । सौ अपायविचयो है दूजौ, तिरे जगतथी धारे तू जो ॥३२॥ करै उपाय शुद्ध भावनिको, अर निरवागपुरि पावनको। तीऔ नाम निपाफविचे है, भवभावनि भिन्न रहे हैं ।।३।। शुभके उदै संपदा आवे, अशुभ उदै आपद बहु पावै । दोऊ जाने तुल्य सदाही, हर्ष-विषाद धरै न कदा ही ॥३४॥ फुनि संठाणविषय है चौथो, सर्व जगतकों आनैं थोयौ । तीन लोकको जानि सरुपा, जिनमारग अनुसार अनूपा ३५ सबको भूषण चेतनराया, चेतनसों नहिं दूजो माया । सर्व लोकसं छांडि जु प्रीती, चेतनकी धारै परतीती ॥३६॥ चेतन भावनिमें लौ लावै, अपनों रूप आपमैं ध्यावे । ए हैं घरमध्यानके भेदा, सुकल प्रदायक पाप उछेदा ३णा चौथे गुणठाणों होइ धर्मा, संपूरण गुण ठाणों परमा । धर्मध्यानके घर गुणठाया, ते देवाधिदेवने आणा ॥३८॥ अहमिन्द्रादिक पद फल ताकी, वरणे जाहिंन मति गुण नाको कारण सुकल ध्यानको एहो, धर्मध्यान सुकाळ ज लेही ॥३॥