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बारह नव वर्णन।
रौद्रध्यानके चारि ए पाये, अधोलोकके दायक गाये। अशुमच्यान ये दोय विरूपा, लगे जीवके विकलपरूपां ॥१॥ नरक निगोद प्रदायक तेई, बसैं मिथ्यात घरामैं एई। कबहुँ कदाचित अणुव्रत ताई, काहूके रौद्र जु उपजाई ॥१८॥ महावृत्तलों आरतध्याना, कबहुंक छठे परमित थाना। काहू के उपजे त्रय पाये, सप्तमठाणे सर्व नसाये ॥१६॥ भोगारति उपजे नहिं भाई, जो उपज तौ मुनि न कहाई। अब सुनी धर्मध्यानकी बातें जे सह पाप पंथको घातें ॥२०॥ धर्म जु स्वत स्वभाव कहावं, पण्डितजन तासों लव लावै क्षमा मादि दशलक्षण धर्मा, जीवदया बिनु कटइ न कर्मा २१ इत्यादिक जिन भाषित जेई, धा” धर्म धोर हैं तेई । धर्मविर्षे एकाग्र सुचित्ता, विष भोगसे अतिहि विरता ॥२२॥ जे वैराग्यपरायण झानी, धर्मध्यानके होंहि सु ध्यानी। जो विशुद्धभावनिमैं लागा, जिन रागदोष सह भागा ॥२३॥ एक अवस्था अनर बाहिर, निरविकल्प निज निधिके माहिर ध्या यात्मभाव सुधिरा, है एकाप्रमना वर वीरा ॥२४॥ जे निजरूपा हैं समभावा, ममत वितीता जग निरदावा। इन्द्री जीति भये जु जितिन्द्री, तिनको ध्यानो कहैं मतिन्द्री चितवन्ता चेतन गुण धामा, ध्यानहि लीना मात्मरामा । निरमोही निरदन्द सदा ही, चिनमैं कालिम नाहिं कदाही २६ जोहि अनुभवै निज चितवनकों, रोके मनको सोकै मनकों। मानन्दी निज शानम्वरूपा, तिनके धर्म ध्यान निरूपा २१ मैत्री मुदिता करुणा माई, अर मध्यस्थ महासुखदाई।