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जैन-क्रियाकोष ।
भरमा वै ।
इष्टवियोग अनिष्टसंजोगा, पीरा चित्तन होई अजोगा ||५|| चौथो बंधनिदान कहावै, जो जीवनिको भव वस्तु मनोहरको जु, वियोगा, होय तवै धारै शठ सोगा । ६ । इष्ट वियोगारत सो जानो, दुःखतरुवरकौ मूल खानों । दूजौ भेद अनिष्ट संभोगा, ताकौ भाव सुनौ भक्लिोगा ॥७॥ वस्तु अनिष्ट मिले जब आई, शोच करे तब भोदू भाई । भवबनमें भरमै शठमति सो, पाप बांधि पार्टी दुरगति सो ICI रोगनिकर पीड्या अति शठजन, आरति धार जो अपने मन सो पीराचितवन है तोजौ, आरतध्यान सदा तजि दीजो || चौथो आरति त्यागौ भाई, बंधनिदान महा दुखदाई । अपतपत्रत कर वाहैं भोगा, ते जगमाहिं महाशठ लोगा |१०| ए चारो आरति दुखदाई, भवकारण भाषै जिनराई । रौद्रध्यानके चारि विभेदा, अब सुनि जे दायक व्यतिखेदा ११ हिंसाकरि आनन्द ज मार्ने, हिंसानंदी धर्म न जानै । मृषावाद करि धरै अनंदा, मृषानन्द सो जियको फन्दा ११२ | चोरी आनंद उपजावै, सो मघ चौर्यानन्द कहावे । परिग्रह बढ़े होय आनन्दा, सो जानों जु परिग्रहनन्दा | १३ | एव भेद हरें सुख साता, दुरमतिरूप उम्र दुखदाता | पर विभूतिकी घटती चाहें, अपनी सपति देखि उमा हैं |१४| रौद्रध्यानके लक्षण एई, त्यागें धन्नि धन्नि हैं तेई । आरति रुद्र ध्यान ए खोटा, इनकरि उपजै पाप ज मोटा १५ दुखके मूल सुखनिके खोवा, ए पापी हैं जगत दबोवा । उ मारतिके पाये भाई, तिर्यग्गतिकारण दुखदाई ॥ १६ ॥