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जन-क्रियाकोष ।। पंच परमपद या अक्षरमै, याहि ध्याय जगमै नहिं भरमै ५१ शुक्लरूप अति उज्जल सजला, ध्यावै प्रणवा हैविमला । सोऽहं सोऽहं अजपाजापा, हरै संतके सब सन्तापा ॥५२॥ इह सुर सबही प्राणीगणके, होवै श्वास प्रश्वास सबनिके। पै नहिं याकौ भेद जु पावै, तातै भोंदू भव भरमावै ॥५३॥ जो यह नाद सुनें वरवीरा, पावै शुक्लध्यान गुणधीरा। उज्जलरूप दाय ए चंका, ध्यावै सो नास अधपंका । ५४ । जिनवर सो नहिं देव जु कोई, अजपा सो नहिं जाप स होई मंत्र अनेक जिनागम गाये, ते ध्यानी पुरषनिने ध्याये ॥५५॥ सबमै पच परम गुरू नामा, पंच इष्ट बिन मन्त्र निकामा। मंत्राक्षरमाला जो ध्यावें, नाम पदस्थ ध्यान सो पावै ॥५६॥ अब सुनि योजौ भेद सु भाई, है रूपस्थ महासुखदाई। कर्तृम और अकतम मूरत, जिनवरको ध्यावै शुभ सुरत ५१ जिनवरको साकार स्वरूपा, तेरम गुणठाणे जु अनूपा । अतिसै प्रानिहाय धर स्वामी, धरै अनत चतुष्टय नामी ५८ समवसरण शोभित जिमदेवा, ताहि चितारै उर धरि सेवा। फुनि नजि रूप रंग गुणवाना, ध्यावै चौथो भेद सुजाना ५६ रूपातीत समान न कोई, धर्म ध्यानको भेद जुहोई । ध्यावै सिद्धरूप अतिशुद्धा, निराकार निलेप प्रबुद्धा ।।६०॥ पुरुषाकार अरूष गुसाई, निरविकार निरदूषन साई । वसु गुण आदि अनंत गुणाकर, अवगुणरहित अनंत प्रभाधर लोकशिखर परमेसुर राजै, केवलरूप अनूप विराज। जितको उर अन्तर जे ध्यान, रूपातीत ध्यानते पावै ॥६या