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जळगालय विधि। सहा मधर्म धारिके, जु नर्क माहि जाहिं ते ॥ १४ ॥ मन्द बाल-निशिमाही भोजन करही, ते पिड ममखते मरही।
भोजनमें कीड़ा खाये, सातै बुधि मूल नशाये ६५
ओ जू का दर जाये, तो रोग जलोदर पाये। माली भोजनमैं भावे, सतखिन सो धमन उपाय ॥१६॥ मकरी आवे भोजनमै, तौ कुष्ट रोग होय तनमैं। कंटक मह काठ खंडा, फसि है जा गले परखंडा|M तो कंठविथा विस्तार, इत्यादिक दोष निहारे। भोजनमैं माय बाला, सुर भंग होय ततकाला ||ER निशिमोजन करके जीवा, पार्वे दुख कष्ट सदीवा। हो। अति ही जु विरूपा, मनुजा मति विकल कुरूपा । मति रोगी आयुस थोरा, है भागहीन निरजोरा। भावर रहिता सुख रहिता, अति ऊंच-नीचता सहिता ।। इक बात सुनो मनलाई, हथनापुर पुर है भाई । तामें इक हूतौ किया, मिथ्यामम धारक लिया ॥१॥ रुद्रदत्त नाम है जाकौ, हिंसामारग मत ताको। सो रात्रि महारी मूढा, गुरनके मत मारूदा ॥२॥ इक निक्षिकों भोंदू माई, रोटीमैं चींटी बाई।
गनमें मीडक खायौ, तम कुल विहं विनायौ ।।३।। कालान्तर सजि निज प्राणा, सोधूपू भयो भयाणा । फुनि मरि करि गयो ज नको, पायसै मति दुख संपळण नोसरि नरकजुते कागा, वह भयो पापपय अगा। बारें मर्कजुके कष्टा, पायौ सपाटा .