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जैन-क्रियाकोष । नहिं कठोर भावानिसो, दयारहित जग माहिं ॥ नहि निरलोभ स्वभावसो सत्य मल है कोइ। नहीं लोभसो लोकमे, कारण मिथ्या होइ ।।८।। मूल अचोरिज बृत्तको, निसाहतासो नाहिं। चोरी मूल प्रपंचमो, नहीं लोकके माहिं ।। राजवृद्धिको कारणा, नहीं नीनिसो जानि । नाहिं अनीति प्रचारसो, राजविघन परवानि ॥ कारण सजम शीलको, नहिं विवेकमो मानि । नहिं अविवेक विकारसो, मूल कुशील बखानि ॥ मूल परिगृहत्यागको, नहि वैराग समान ॥ परिगृह संग्रह कारणा, तृष्णा तुल्य न आन। करुणानिधि न जिनेन्द्रसो, जगतमित्र है सोय ॥ नहिं क्रोधीमो निरदई, सर्वनाशको होय ।। सनवादी सर्वज्ञ से, नहीं लोकमे कोइ । कामी लोभीसे नहीं, लापर और न होइ ।। सम्यकदृष्टी जीवसो और बिसन मदमोर । मिथ्यादृष्टी जीवसो, और न परधन चोर ॥ समताभाव न मत्यमो, सीलवंत नहीं धीर । लम्पट परिणामी जिसो, नाहिं कुशीली वोर ॥ निसप्रेही निरदुन्दसो, परिग्रह त्यागी नाहिं। तृष्णातन्त असंतसो, परिग्रहवंत न काहिं ॥ दारिदभंजन जस करण, कारण सम्पति कोइ । नहीं दानसो दूसरो, सुरग मुक्ति दे सोइ ॥१०॥