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बारह व्रत वर्णन। क्या सर्वगसे नहीं श्रोता गणधरसे न। कथन न मातम झानसो, साधक साधू जिसेन ॥ बाधक नहिं रागादिसे, तिनहिं तर्जे जे गिन्द। नहिं साधन समभावसे, धारें धीर मुनिंद ।। पाप नहीं परदोहसो, त्यागें सज्जन सन्त । पुन्य न पर उपगारसो, धार नर मतिवंत ॥ ७० ॥ लेस्या शुकल समान नहिं, जामें उज्जल भाव । उज्वलता न कषाय सी और न कोई लखाव । दया प्रकाशक जगतमें, नहीं जैन सो कोइ । पर्म धर्म नहिं दूसरो दया सारिखो होइ ।। कारण निज कल्याणको, करुणा तुल्य न जानि । कारण जिन विश्वासको, नहीं सत्यसो मानि ।। सत्यारथ जिनसुत्रसो, और न कोइ प्रवानि । सर्व सिद्धिको मूल है, सत्य हियेमे आनि ।। नहिं अचौर्यबत सारिखो, भै हरि भ्राति निवार । नहिं जिनेन्द्र मत सारिखौ, चोरी बरज उदार। नहीं सीलसो लोकमें, है दूजो अविकार । कारण शुद्ध स्वभावको, भवजलतारण हार ।। नहिं जिनसासन सारिखौ, शील प्रकाशनहार । या संसार असारमे जा सम और न सार ।। नहिं सन्तोष समान है, सुखको मूल अनूप। नहीं जिनेसुर धर्मसों, वर सन्तोष स्वरूप॥ कोमल परिणामानिसो, करुणाकारक नाहिं।