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बारह व्रत वर्णन। आनन्दी मानन्द मय, धार परम समाधि ॥ २५ ॥ अथवा कदै प्रमादतें, किंचित लागै दोष । तो अपने औगुण सुधी, तहिं गोपे व्रतपोष ॥ ६ ॥ श्रीगुरु पास प्रकाशई, सरल चित्तकरि धीर । स्वामी चाग्यौ दोष मुझ, दंड देहु जगवीर ।। २७ ॥ तब जो गुरु दंड दे, प्रत तप दान सुयोग । सो सब श्रद्धा से करें, पाने पंथ निरोग ॥२८॥ ऐसी मनमै ना धरे अलप हुतौ यह दोष । दियौ दंड गुरुने महा, जाकरि तनको सोष ॥ २६ ॥ सबै त्यागि शका सुधी, सकल विकलपा डारि। प्रायश्चित्त करै तपा, गुरु आज्ञा अनुसारि ॥३०॥ बहुरि इच्छै दोषकों, त्यागे मन वच काय । देहनत सौ टूक हौ, तौहु न दोष उपाय ।। ३१ ।। या विधिक निश्चे सहित, वरते शानी जीना। ताके तप हरै सातमौ, भाषे त्रिमुगन पीन ॥ ३२॥ जो चितवै निजरूपकों, ज्ञानस्वरूप अनूप । चेतनता मंडित विमल, सकल लोकको भूप।। ३३ ॥ बार बार ही निज लखै, आने बारम्बार । बार बार अनुभव करै, सो ज्ञानी अविकार ।। ३४ ।। विकथा विष कषायते, न्यारौ वरतै सन्त । ता विरकतके दोष कहु, कैसे उपजे मिन्त ॥ ३५ ॥ निरदोषी बहु गुण घर, गुणी महाचिद्रप। सासों परवै पाइयो, सो तपधारि अनूप ॥ ३६॥