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न-क्रियाकोष ।
दोक्तनो परिहार जो, कहिये प्रायश्चिन्त । धारै सो निजपुर लहै, गदै सासतो क्त्ति ॥ ३७ ॥ अब सुनि भाई आठमो, विनय नाम तप धार । विनय मूल जिनधर्म है, बिनय सु पंच प्रकार ||३८|| दरसन ज्ञान चरित्र तप, ए चउ उत्तम होइ । अर इन चउके धारका, उत्तम कहिये सोइ ॥ ३६ ॥ इन पाचनिको अति विनय, सो तप विनय प्रधान । ताके भेद सुनू भया, जाकरि पद निरवान ॥ ४० ॥ दरसन कहिये तत्वकी, श्रद्धा अति दृढरूप । ज्ञान जानिवौ तवक, संशय रहित व्यनूप ॥ ४१ ॥ चारित थिरता तत्त्व, अति गलतानी होइ । तप इच्छाको रोखिवौ तन मन दण्ड न सोइ ||४२॥ ए हैं च आराधना इन बिन सिद्ध न कोइ । इनst अति आराधित्रौ, बिनयरूप तप सोइ ॥ ४३॥ रतनत्रयधारक अना, तप द्वादस विधि धार । तिनकी व्यति सेवा करे, तन मन करि अविकार ||४४॥ सो उपचार कह्यौ विनय, ताके बहुत विभेद । जिनवर जिन प्रतिमा बहुरि, जिनमंदिर हरछेद ||४५६ | जिनवानी जिन तीरथा, मुनि आर्या व्रत धार । श्रावक और सु श्राविका, समदृष्टी अविकार ||४६ ॥ इनको विनय जु धारिवौ, गुण अनुरामी होइ । सो तप विनय कहावई, धारे उत्तम सोइ ॥ ४७ ॥ जैसे सेवक लोग अति, सेवै नरपति द्वार ।