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बारह वर्णन तेसे परिधि संघकों, सेवे सो तप धार ॥४८॥ बाप की जो समा, सिनको वासा होई। सपसों समता भावई, विमयरूप सप सोह। ४६ ॥ प्रत विन छोटे आपते, जेसम्यक्त निवास। जिनधर्मी जिनदास हैं, सिनईसों हित मास ॥५०॥ धर्मा जाके भयो, सो इह विनय घरेष। पाच प्रकार विनय करि, भवसागर उतरेव ।। ५१ ॥ अब सुनि वैषावृत्त जो, नवमो सप सुखदाय। जो अपहार कर सुषी, पर दुखार अधिकाय ॥५२॥ हरे सकल उपसर्ग जो, मानिनिके सपवार । सुधी हद रोगीनिको, कर सदा पगार ॥५॥ महिमाविक चाहे नहीं, निरापेक्ष प्रापार । वैयावृत्त कर भया, जिनवाणी मनुसार ॥५४॥ मुनिको उचित मुनीकर, टहल मुनिनिकी पीर । मुनि सेवासम नाहिं कोड, त्रिमुबनमें गंभीर ॥ ५५॥ श्रावक भोजन पथ्य दे, औषधि बाश्रम मादि। कर भक्ति साधुनिकी, इह विधि है जु अनादि ५३ मो ध्यानै स्नरूपको, सर्व बिकलपा सरि । सम दम भाव हिद घर, यावृत सो धारि ५०n सम कहिये समष्टिता, सकल जीवकों सूख्या। देखें शान विचारते, र बटीजु अतुल्य ||५वा बम कहिये मन इन्द्रियां, बर्म महा उपचारित वित लगाने मापनों, सद गोकशी मारि५॥