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जैन-क्रियाकोष तजै लोक व्यवहारकों धरै अलौकिक वृत्ति। सो चउगतिको दे जला, पागै महा निवृत्ति ॥ ६० ॥ सनों सुबुद्धी कान धरि, दसमो तप स्वाध्याय । सर्व तपनिमै है सिरै, भार्षे त्रिभुवनराय ॥ ६१ ॥ नहिं थाहै जु महंतता, करनावे नर्हि सेग। चाह नहीं परभागकी, सेनै श्रीजिनदेन ॥ ६२॥ दुष्ट निकलपनिकों भया, जो नासन समरत्य । सो पानै स्वाध्यायकों, फल केगल परमत्य ॥ ६३॥ तत्ता सुनिश्चै कारनें, करें शुद्ध स्वाध्याय । सिद्धि कर निज ऋद्धिकों, सो आतम लगलाय ॥६॥ आगम अध्यातममई, जिनगरको सिद्धान्त । ताहि भक्तिकरि जो पढ़े, मो स्वाध्याय सुकात ॥६५॥ केवल आतम अर्थ जो, करें सूत्र अभ्यास । अपनी पूजा नहिं चहै, पानै तत्त्ता अध्यास ॥६६॥ अपने कर्म कलकके, काटनको श्रुतपाठ । करें निरन्तर धर्मधी, नासै फर्म जु आठ ॥६॥ भेद पच स्वाध्यायके, उपाध्याय भाषेहिं । जे धार ते शातधी, आतम रस चाखेहिं ।। ६८॥ कही वाचना पृच्छना, अनुप्रेक्षा गुरु देन । आमनाय फुनि धर्मको, उपदेशौ बहुमेन ॥६॥ अन्य बाचनौ गांचना, पृछना पूछनरीति । बारम्बार बिचारिगौ, अनुप्रेक्षा परतीति ॥७॥ आमनायकौ जानिगौ, जिनमारगकी बीर।