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बारह व्रत वर्णन। मासासीके घरको भोजन करें कुमतिके धारी। तिनके घट करुणा कहु कैसें, कहा शोध आचारी॥ तासौ पाणी आठ हि पहरा, आगे त्रस उपजाही। ताकी तिनकों सुधि बुधि नाही, दया कहां तिनमाही । निसिको पीस्यौनिसिको राध्यौ बींधौ सीधौ खावे। हरितकाय राधी सब स्वादै, दया कहाते पावै ।। चर्म-पतित घृत तेल जलादिक, तिनमें दोष न माने। गिर्ने न दोष हींगमें मूढा, दया कहातें आने ।। हाटें बिकते चून मिठाई, कहे तिनें निरदोषा। भखे अजोगि अहार सबैही दया कहाते पोषा ॥ दूध दही अरु छाछि नीरको, जिनके कछ न विचारा। दया कहां है तिनके भाई, नहीं शुद्ध आचारा ॥ सूग नहीं मलमूत्रादिककी, ढोर समाना तेई । तिनजे नर जैनी जाने, ते नहिं शुभमति लेई ।। बाधक जिन शासन सरधाके, माधकता कछु नाही। साधु गिर्ने तिनक्जे कोई, ते मूरख जग माहीं।। एक मारको नियम न कोई, बार बार जलपाना। बार बार भोजनको करिवौ, तिनके व्रत न जाना । प्रसकायाको दूषण जामे, सो नहिं प्रासुक कोई। भखै असूत्री शठमति जोई, नाहिं व्रतधर होई ।। दयाधर्मको परकाशक है, जिन मन्दिर जग माहीं। ताहि न पूजें पापी जीवा, तिनके समकित नाहीं॥ कारण मातम ध्यान तणी है, श्रीजिनप्रतिमा शुद्धा।