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जैन-क्रियाकोष। ताहि न बन्दे निन्द जु तेई, जानहु महा अबुद्धा॥ बूडें नरक मंझार महा शठ, जे जिन प्रतिमा निंदें। जाहिं निगोद विवेक-वितीता जे जनगृह नहिं बढ़ें। अज्ञानी मिथ्याती मूढा, नहीं दयाको लेशा । दयावन्त तिन जे भाषे, ते न लहे निजदेशा ।। दोहा-सुर नर नारक पशुगती, ए चारो परदेश ।
पंचमगति निज देश है, यामे भ्राति न लेश ।। पंचम गतिको कारणा, जीवदया जग माहिं । दया सारिखौ लोकमे, और दूसरौ नाहिं ।। दया दोय विधि है भया,स्व-पर दया श्रुति माहिं । सो धारौ दृढ चितमे, जाकरि भव-भ्रम जाहि ॥ स्वदया कहिये सो सुधी,रागादिक अरि जेह । हनें जीवकी शुद्धता, टारि तिन्हे शिव लेह ॥६॥ प्रगट कर निज सुद्धता, रागादिक मदमोरि । निज आतम रक्षा करे,डार कर्म जु तोरि ।। सो स्वदया भाषे गुरु, हरे कर्म-बिस्तार । निज हि बचावै कालते, करें जीव निस्तार ।। षट कायाके जीव सहु, तिनत हेत रहाय । वैरभाव नहिं कोयसू, सो पर दया कहाय ।। दया मात सब जगतकी, दया धर्मको मूल । दया उधारै जगततें, हरै जीवकी भूल । दया सुगुनकी बेलरी, दया सुखनकी खान । जीव अनन्ता सीजिया, दयाभाव पर आन ।।