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बारह व्रत वणन।
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स्व-पर दया दो विधि कही,जिनवाणीमें सार । दयावन्त जे जीव है, ते पार्वे भवपार ॥
सवैया इकतीसा। सुकृतकी खानि इन्द्रपुरीकी नर्सेनी जानि,
पापरज खंडनको पौनरासि पेखिये। भवदुख-पावक बुझायवेकू मेघमाला,
कमला मिलायवेकों दूती ज्यूं बिसेखिये ॥ मुकति-बघूसों प्रीति पालिवेको आली सम,
कुगतिके द्वार दिढ़ आगलसी देखिये। ऐसी दया कीजे चित्त तिहू लोक प्राणी हित,
___ और करतूति काहू लेखेमे न लेखिये ॥ दोहा-जो कबहूं पाषाण जल, माहिं तिरै अरभान ।
ऊगै पश्चिमकी तरफ, दैवयोग परवान ॥ शीतल गुन हे अगनिमें, धरा पीठ उलटेय । सौहू हिंसाकर्मते, नाहीं शुभमति लेय ॥ जो चाहै हिंसा करी, धर्म मुकतिको मूल । सा अगनीसूकमलवन, अभिलाषै मतिभूल ॥७॥ प्राणघात करि जो कुधा, बाछै अपनी गृद्धि । सो सूरजके अस्तते, चाहे वासर शुद्धि । जो चाहे व्रत-धर्मको, करै जीवको नास । सो शठ अहिके बदनतेः, करै सुधाकी आस । धर्मबुद्धि करि जो अबुध, हने आपसे जीव । सो विवाद करि अस चहै, मल-मथनतें धीव ।।