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जैन-क्रियाकोष। जैसें कुमती नर महा, कालकूटकू पीय । जीवौ चाहै जीव हति, तैसें श्रेय स्वकीय ॥ करि अजीर्ण दुरबुद्धि जो, इच्छै रोग-निवृत्ति । तैसें शठ परघात करि, चाहै धर्म प्रवृत्ति । दयाथकी इह भव सुखी, परभव सब सुख होय । सुरग मुकति दायक दया, धारै उधरै सोय ॥ इंद नरिन्द फणिन्द अर, चंद सूर अहमिंद । दयाथकी 'इह पद लहै होवै देव जिणे द ॥ भव सागरके पार है, पहुगै पुर निर्वान । दया तणों फल मुख्य सो, भाषे श्रीभगवान ॥ हिंसा करिके राजसुत, सुबल नाम मतिहीन । इह भव पर भव दुख लहे, हिंसा तो प्रवीन ॥ चौदसिके इक दिवसकी, दया धारि चिंडार । इह भव वृष पूजित भयौ, लयौ सुरग सुख सार ॥८॥ जे सीझे जे सीझि है, ते सब करुणा धार । जे बूढे जे बूढ़ि है, ते सब हिंसाकार ॥ अतीवार तजि व्रत भजि करुणा तिन जाय । बध बंधन छेदन बहुरि, बोझ धरन अधिकाय ॥ अन्न पानको रोकिबो, अतीचार ए पंच। त्यागौ करुणा धारिके इनमें दया न रंच ॥ हिंसा तुल्य न पाप है, दया समान न धर्म । हिंसक बूडै नरकमे, बाधै अशुभ जु कर्म । हुती धनश्री पापिनी, बणिकनारि विभचारि ।