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बारह प्रत वर्णन । ऐसे विकलप जो करो वर्तमान सो नाहि ॥ ५० ॥ कूप भांड परिग्रह तनों, करि प्रमाण तन धारि। चित्त चाहि मेटे नहीं, सो चौथो अतिचार ॥५१॥ शायन नाम सध्या तनों, आसन द्वय विधि होय । थिर आसन चर आसना, करें प्रमाण जु कोय।। ५२॥ फुनि अधिकों अभिलाष धति, लावै व्रतही दोष । अतीचार सो पंचमी, रोके मारग मोष ॥ ५३॥ थिर आसन मिहामनों, ताहि आदि बहु जानि । त्यागै चक्रीमंडली, जिन आज्ञा उर आनि ॥ ५४॥ स्यंदन कहिये ग्थ प्रगट, सिबका है सुखपाल । एथलके चर आसना, त्यागे भव्य मुपाल ॥ ५५॥ बहुरि बिमानादिक जिके, चर आमन शुभरूप । ते अकासके जानिये. त्यागे खेचर भूप ॥५६॥ नाव जिहाजादिक गिनें, चर आमन जल माहि । चर आसनको पण्डिना, यान कह सक नाहिं ।। ५७ ॥ सकल परिग्रह त्यागिवौ, सो मुनिमारग होय । किंचित मात्र जु राखिवौ, ब्रत श्रावकको सोय ॥ ५८ व्याधि न तृष्णा सारखी, तष्णासी न उपाधि । नहिं सन्तोष समान है, कारण परम समाधि ॥ ५९॥ तृष्णा करि भववन भ्रमै, सृष्णा त्यागें सन्त । गृह परिग्रह बन्धन गिनें, ते निर्वाण लहंत ।। ६० ॥ प्रत पाचमो इह कह्यों, सम सन्तोषस्वरूप । धन्य धन्य ते धीर हैं, त्यागै लोम विरूपं ॥ ६१ ।।