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________________ जैन-क्रियाकोष। द्रव्य सूत्र परताप, भावसूत्र दरस्यौ तहां । गयो सफल सन्ताप, पाप पुण्य दोऊ मिटे ॥४८॥ एक भावमैं भाव, लखे अनन्तानन्त ही। भागे सकल विभाव, प्रगटे ज्ञानादिक गुणा HEEM अपनों रूप निहार, केवलके सन्मुख भयौ। कर्म गये सब हारि, लरि न सके जासें न कोऊ ॥१००। एकहि अर्थे लीन, एकहि शव माहिं जो। एकहि योग प्रवीण, एकहिं व्यजन धारियौ ॥१॥ एकत्व नाम अभेद, नाम बितर्क सिधन्तको। निरविचार निरवेद, दूजौ पायौ इह कह्यौ ॥ २॥ जहां विचार न कोय, भागे विकलप जाल महु । क्षीणकषायी होइ, ध्यानारूढ भयौ मुनी ॥ ३॥ दूजो पायो येह, गायौ गुरु आज्ञा थको । कर कर्मको छेह, अब सुनि तीजौ शुकल तू ॥४॥ सुक्षम किरिया नाम, प्रगटै तेरम ठाण जो। जो निज केवल धाम, श्रुतझानीके है परे ॥ ५॥ लोकालोक समस्त, भासै केवल बोध मैं। केवल सा न प्रशस्त, सर्व लोकमै ओर कोउ ।। ६ ।। जे अघातिया नाम, गोत्र वेदनी आयु है। निनको नाशै गम, परम शुकल केवल थकी ।। ७ ।। पच्यासी पच्यासी प्रकृती जु, जिनके ठाणो तेरमें। जरी जेबरी सो जु, तिनकू नाशे सो प्रभू ॥ ८॥ सुक्षमक्रिया प्रवृत्ति, ध्यावे तोजो शुकल सो। वादरजोग निवृत्ति, कायजोग सुक्षम रहै ।। ६ ।। करै जु मूक्षम जोग, तेरम गुणके छेहुरे। पावै तबै अजोग, चौदम गुणठाणे प्रभू ॥ १०॥ नहा सु चौथौ ध्यान, है जु समुच्छिन्नक्रिया । ताकरि श्रीभगवान, बेहत्तरि तेरा हतं ॥११॥ गई प्रकृति समस्त, मौ ऊपरि अडताल जे। भये भाव जड़ अस्त, चेतन गुण प्रगटे सवै ॥ १२ ॥ करनी सकल उठाय, कृत्यकृल्य हबौ प्रभ । सो चौथो शिवदाय, परम शुकल जानो भया ।। १४ ॥ पंच
SR No.010271
Book TitleJain Kriya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size7 MB
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