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जेन-क्रियाकोष। नहिं अरिष्ट अघकर्मसे, शिष्ट न शुभग समान । नाहिं पञ्चपरमेष्टिसे, और इष्ट परवान । जिनदेवलःसे देवल न, नहीं जैनसे बिम्ब । केवलमो ज्ञायक नहीं, जामे सब प्रतिबिब ॥ नाहिं अकर्तम सारिखे देवल अतिसैरूप । चैत्यवृक्षसे वृक्ष नहि, सुरतरुमें हु अनूप ।। जोगी जिनवरसे नही, जिनकी अचल समाधि । निजरस भोगी ने सही वर्जित सकल उपाधि ॥ इन्द्रिय भोगी इन्द्रसे नाहिं दूसरे जानि । इन्द्री जीत मुनिन्द्रसे, इन्द्रनरेन्द्रनि मानि । राग दोष परपञ्चसे, असुर और नहि होय ।। दर्शन-ज्ञान-चरित्रसे, असुर नाशक न कोय ।।
काम-क्रोध-लोभादिसे नाहिं पिशाच बखानि । १ इन्द्रियोंको जीतनेवाले। २ वन्दना । ३ मन्दिर ।
सम सनोष विवेकसे, मत्राधीश न मानि ।। माया मच्छर मानसे, दुखकारी नहिं वीर । निगरव निकपटभावसे सुखकारी नहि धीर ।। मैल न कोइ मिथ्यातसो, लग्यौ अनादि विरूप । साबुन भेदविज्ञानसो, और उज्वलरूप ॥ मदन-दर्पसो सर्प नहिं, डस देव नर नाग२। गरुड न कोई शीलमो, मदनजीत३ बडभाग ॥८॥ मैल न मोहासुर समो, सकलकर्मको राव। महामल्ल नहि बोध सा, हरै मोह परभाव ।।