________________
बारह व्रत वर्णन। भर्म न कोई कर्मसे, कारण संसै आनि । भृमहारी सम्यक्तसे, और न कोई मानि ॥ विष नहिं विषयानंदसे, देहि अनन्ता मर्ण । सुधा न ब्रह्मानन्दसो, अनुभवरूप अव ।। कूर न क्रोधी सारिखे, नहीं क्षमीसे शात । नीच न मानी सारिखे, नि गरवसे न महात ॥ मायावीसो मलिन नहि, विमल न सरल समान। चिंतातुर लोभीनसे दीन न दुखी अयान ।। दुष्ट न दोषी सारिखे, रागिसे नहिं अन्ध ।
अहंकार ममकारसो, और न कोई बन्ध । १ मत्सर । २ सर्प । ३ कामदेव ।
मोहीसे नहिं लोकमे, गहलरूप मतिहीन । कामातुरसे आतुर न, अविवेकी अघलीन ।। श्रण नहिं आस्रव-बंधसे राखे भवमे रोकि । मुनिवरसे मतिवन्त नहिं छूटें ब्रह्म विलोकि ।। संवर निर्जर सारिखे, रिणमोचन नहिं कोई। दुर्जर कर्म हरें महा, मुक्तिदायका सोइ । विपति न वाछा सारिखी वाछा रहित मुनीस । मृगतृष्णा मिथ्या जसो और कहें रिषीस ॥१०॥ समतासी संसारमें साता कोइ न जानि । सातासी न सुहावणी, इह निश्चे घर आनि ॥ ममतासी मानों भया, और असावा नाहिं। नाहिं असाता सारिखी, है मनिष्ट जगमाहिं॥