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जैन-क्रियाकोष |
धीर ॥
माहिं ।
उदासीनता सारिखी समताकरण न कोय । जग अनुराग समानता, समता भूल न जोय ॥ नाहिं भोग- अभिलाषनी, भूख अपुरण वीर । नाहिं भोग-वैरागसी, पूग्णता है नाहीं विषयासक्तिसी, त्रिषा त्रिलोकी विरकततात्री विश्वमे, और तृषाहर नाहिं ॥ पराधीनता सारिखी, नहीं दीनता कोइ । नहिं कोई स्वाधीनता, तुन्य उचता होइ ॥ नाहीं समरसीभावसी, समता त्रिभुवन माहिं । पक्षपात बकबादसीं और न बिकथा नाहिं || जगतकामना कलपना, -तुल्य कालिमा नाहि । नहीं चेतना सारिखी, ज्ञायक त्रिभुवन माहिं || ज्ञानचेतना सारिखी, नहीं चेतना शुद्ध । कर्म कर्मफल चेतना, ता सम नाहिं अशुद्ध ॥ नर निरलोभी सारिखे, नाहिं पवित्र बखान | सतोषी से नहिं सुखी इह निश्चै परवान ॥१००॥ निरमोही अर निरममत, ता मम संत न कोय । निरदोषी निरबैरसे, साधू और न कोय ॥ दोष समान न मोषहर राग समान न पासि । मोह समान न बोधहर, ए तीनू दुखरासि ॥ व्रती न कोइ निसल्यसो, माया तुल्य न शल्य | हीन न जाचिक सारिखौ त्यागीसे न अतुल्य ॥ कामीसे न कलंकधी काम समान न दोष ।