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बारह व्रत वर्णन। परदारा परद्रव्यसो, और न अघको कोष । सल्य समान न है मली, चुभी हियेके माहि । नहिं निरदोय स्वभावसो, मूढा और कहाहिं (2) शोच न संग समान है, सङ्ग न अङ्ग समान । अङ्ग नहीं द्वय अङ्गसे, तिनहिं त निरवान ।। कारमाण अर तैजसा, ए द्वय देह अनादि । लगे जीवके जगतमें, रोग महा रागादि । गेह समान न दूसरो, आ, कारागेह । देह समान न गेह है, त्यागौ देह-सनेह ।। ए काया नहि जीवको, सो है ज्ञान शरीर। मृत्यु न ज्ञान शरीरको, नहीं रोगको पीर ॥ नाही इष्ट वियोगसो, सोगमूल है कोइ । काया माया सारिखौ, इष्ट न जगके जोइ॥१०॥ नहि संकल्प विककल्पसो,जाल दूसरोजानि । नहिं निरविकलप ध्यान सो,छेदक जाल बखानि ।। नहीं एकता सारिखी परम समाधि स्वरूप। नहीं विषमतासी अबर सठता रूप विरूप ।। चिन्तासी असमाधि नहिं, नहिं तृष्णासी न्याधि। नहीं ममतासी मोहनी, मायासी नवपाधि ।। ज्ञानानदादिक महा, निजस्वभाव निरदाव । तिनसों तन्मय भाव जो, मो एकत्व महाव ।। आशासी न पिशाचिनी आसासी न असार । नहीं जाचना सारिखी, लघुता जगत मंझार ।।