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बारह व्रत वणन ।
वर प्रत आचारज धारें, ते सर्व दोषकों टारे । या बिन नहिं साघू गनिया, या बिन नहिं श्रावक भनिया। श्रावक मुनि द्वय विध धर्मा, यह प्रत दुहुनको मर्मा ॥१०॥ मुनिके सब ममता छूटी ममतातें दुरमति टूटी। मुनि अवधि न एक घराही, काछु छाने नाहिं कराही॥ देहादिक सों नहिं नेहा, बरसै घट आनन्द मेहा । मुनिके सब दोष जु नासे, तातेसु महाव्रत भासे ॥ मुनिके कछु हरनो नाही, चित लागै चेतन माहीं। श्रावकके भोजन लेई, नहिं स्वाद विर्षे चित देई ।। काम न क्रोध न छल माना, नहिं लोभ महा बलवाना। जे दोष छियालिस टालें, जिनवरकी आज्ञा पालें। ते मुनिवर ज्ञानसरूपा, शुभ पंच महाव्रत रूपा । गृह पतिके कछु इक धंधा, कछु ममता मोह प्रबन्धा ॥ छाने कछ करनो आबे, साते अणुबत कहानै। कूपादिकको जल हरवौ, इह किंचित दोषहु धरवौ। मोटे सब त्यागे दोषा, काइको हरय न कोषा। त्यागौ परधनको हरवौ, छाडौ पापनिको करवौ ॥ संक्षेप कही यह बाता, आगे जु सुनहु अब भ्राता। इह अणुबूतका जु सरूपा, जिनश्रुत अनुसार परूपा ।। अब अतीचार सुनि भाई, त्यागौ पंचहि दुखदाई। है चोरीको जु प्रयोगा, सो पहलो दोष अजोगा ।। चोरीको माल जु लेनों, इह दूजो अघ तजि देनों। थोरे मोले बड़ बस्ता, लेवौ नहिं कबहुं प्रशस्ता ॥१०॥