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जैन-क्रियाकोष।
चोरी त्यागें शिव होई, चोरी लागे शठ सोई। चोरीके दोय विमेदा, निश्चै ब्यौहार विछेदा ।। निश्चै चोरी इह भाई, तजि आतम जड लवलाई । पर परणति प्रणमन चोरी, छाडे ते जिनमत धोरी ।। तनिकै पर परणति जीवा, त्यागौ सब भाव अजीवा । यह देह आदि पर बस्ता, तिनमो नहिं प्रीति प्रशस्ता ॥१०॥ बिन चेतन जे परपंचा, तिनमे सुख ज्ञान न रंचा। इनमे नहिं अपनो कोई, अपनो निज चेतन होई ।। तातें सुनिके अध्यातम, छाडौ ममता मब आतम । अपनो चेतन धन लेहो, परकी आमा तजि देहो। जे ममता पथ न लागे, निश्चै चोरी ते त्यागे । जब निश्चै चोरी छुटै, तब काल भूपाल न कूटै ॥ इह निउचै वृत्त बखाना, या मम और न कोई जाना। शिव पद दायक यह प्रत्ता, करिये भविजीव प्रवृत्ता ।। जिन त्यागी परकी ममत्ता, तिन पाई आतम सत्ता । अब सुनि व्यवहार सरूपा, जो विधि खिनराज परूपा ॥ इक देव जिनेसुर पूजौ, सेवौ मति जिन विन दूजौ। बिन गुरु निरग्रन्थ दयाला, सेवौ मति औरहि लाला ॥ सुनि श्रीजिनजूके ग्रन्था, मति सुनहु और अघपंथा। मिथ्यात समान न चोरी--धारे तिनकी मति भोरी॥ इह अंतर बाहिज त्यागें, तब ब्रत विधान हिं लागें। सम्यक है आतम भावा, मिथ्यात अशुद्ध विभावा ।। सम्यक निश्चै व्यवहारा, सो धारौ तजि उरझारा ।