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बारह व्रत वणन ।
पासीगर सम नहि पापी, पर प्राण हरे संतापी ॥ सो महानरकमे जावै, भव-भवमें अति दुख पावै । हाकिम है धन मति चोरी, ले सूंक न्याव मति बोरौ ॥ लेखामें चूक न कारें, इहि नरभव मूढ़ ! न हारें ।
हरियो परको वित्ता ते पापी दुष्ट जु चित्ता ॥ रुलिहे भव माहिं अनंता, जा परधन प्राण हरंता । चुगली करि मति हि लुटाव, काहूकू नाहिं कुटावौ ॥ परको ईजति मति हरि हो, परको उपगार अ करिहो । धन धान नारि पसु बाला, हरिये काहुके नहिं लाला ॥८०॥ काहूको मन नहिं हरिये हिरदामें श्रीजिन धरिये । तिर नर जीवनकी जीवी मेटौ मति करुणा कीवी ॥ तुम शल्य न राखौ बोरा, करि शुद्ध चित्त गुणधीरा । राका बाधी मति करिहो, काहूकी सोंपि न हरिहो ॥ बोलो मति दुष्ट जु बाके, तुम दोष गहौ मति काके । काहूको मर्म न छेदौ, काहूको छेत्र न भेदौ ॥ काहूको कछू नहिं बस्ता, मति हरहु होय शुभ अस्ता । sewa धारौ वर वीरा, पावौ भवसागर तीरा ॥ जाकरि कर्म विध्वस्ता, सो भाव धरौ परशस्ता । तृण आदि रत्न परजंता, पर धन त्यागौ बुधिवंता ।। afrat रागादिक दोषा, करवौ कर्मनको सोषा । धरि भर्म, धर्म धरि भाई, हुजे त्रिभुवनके राई ॥ अपनो अर परको पापा, हरिये जिनवन्वन प्रतापा । छाड़े जु बदता दाना, करि अनुभव अमृत पाना ॥