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अपन क्रिया। दोहा-अप-तरवरको मूल इह, मोह मिण्यात जु होय। राग दोष कामादिका, ए सकंध बहु जाय ।
अशुभ क्रिया शाखा धनी, पल्लव चंचल भाव ।
पत्र असंजम अनता, छाया नाहिं लखाव ।। - इह भव दुख भादं पहुप, फल निगोद नरकादि ।
इह अघ-तरुको रूप है भववन माहि मनादि । चौपाई-क्रिया कुठार गहै कर कोय, अघतर वरक काटै सोय ।
जे बेंच दधि और मठा, उदर भरण के कारणशठा । तिनकें माल लेय जो खाहिं ते नर अपनों जन्म नसाहिं । तारौं मोलतनो दधि तजौ, यह गुरु आज्ञा हिरदै मजौ ॥ दधी जमावै जा विधि व्रती, सो बिधि धारहु भाषहिं जती। दूध दुहाकर ल्यावै जबै, ततछिन अगनि चढावै तबै ।। रूपौ गरम करे पयमाहि, जामण देइ जु संसै नाहिं। जमे दही या विधिकर जोह्र बाघे कपरा माही सोहु । जूद रहे नहिं जलकी एक, तबहिं सुकाय धरे सुविवेक। दहीवड़ी इह भाषी सही, गृही जमावै सासों दही ।। १६० अथवा दधिमें रूई भेय, कपरा मेय सुकाय धरेय । राखै इक द्वे दिन ही जाहि, बहुत दिना राखै नहि ताहि ।। जलमें घोलिर जामण देय, दधि ले तो या विधिकरि लेय।
और भाति लेवौ नहि जोगि, भालों जिनवर देव अरोगि।। शीतकालकी इह विधि कही, उष्णरु बरषा रासै नहीं। जाहि सर्वथा छाडै दधी, तासम और न कोई सुधी। सूदन पात्रनिको दुग्ध, दधि-कृत-अछि भलों से मुग्ध ।