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जैन-क्रियाकोष। उत्तम कुल हू जे मतिहीन, क्रियाहीन जु कुविसन अधीन ॥ तिनके घरको कछह न जोगि, तिनको किरिया बहुत अजोगि। दूध ऊँटणी मेडिन तनो, नियौ जिनमत माही घनों ।। गो महिषी विन और न भया, कमहु न लेनों नाही पया। महिषी दूध प्रमाद करेय, ताते गायनिको पय लेय ॥ नीरसन्नत धर दूधहिं तजै, तातें सकल दोष ही भजे । हाट बिकते चूनरु दालि, बुधजन इनको खावौ टालि ।। बींधौ घोट पीस दलै, जीवदया कैसे पलै ।
धूलो संखतणों कसतुरि, इनको निंद कहें जिनसूरि ।। दोहा-चरमसपरसी वस्तुको, खाते दोष जु होय ।
ताको संक्षेपहिं कथन, कहों सुनो भविलोय ।। मूके पसूके चर्मको; चीरे जो चण्डार । तो चण्डालहिं परसिकै, छोति गिनें संसार ॥१७॥ तौ कैसे पावन भयौ, मिल्यौ चर्म सों जोहि । आमिष तुल्य प्रभू कहे, याहि तजौ बुध सोहि ॥ उपजै जीव अपार सुनि, जिनवानी उर थारि । जा पसुको है चर्म जो, तैसे ही निरधारि ।। सन्मूर्छन उपमें जिया, तातै जल :घृत तेल । धर्म सपरसे त्यागिवे, भाषे साधु अचेल ।। जैसे सूरज काचके, रुई बीचि धरेय। प्रगटै अगनि तहा सही, कई भस्म करेय ।। वैसे रस और धर्मके जोगै, जिय उपजन्त । खानेवारेके सकल, धर्मप्रत लुपिजन्त ।