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जन-फियाकोष पौवो जोगरहित निकिरिया,जाहिबार साप भवतिरिका मष्टम अणों पहलो पायो, बारमठाणे एनौ गायो। सीमो तेरमठाणों मानो, चौथौ चौदमठायों मानों ॥७॥ इनके मेद सुनों धरि भाव, जिनकर नासै सकल विभाव। होहिं पवित्रभाव मधिकाई, मक्तक वे नहिं भाई 400 भाव अनंत ज्ञान सुख मादी, लिनको धारक वस्तु अनादी। लिये अनंता शक्ति महंती, धरें विभूति अनंतानंती 1000 अपनी माप माहिं अनुभूती, अति अनंतता अतुल प्रभूती। अपने भाव तेहि निज अर्था, और सबै रागादि अनर्था ||CH सपनो मर्थ मापमें जाने, आतम सचा आप पिछाने । इक गुणते पूजो गुण जावे, ज्ञानयकी मानन्द बढ़ावै ॥७॥ गुण मनतमै लीलाधारी, सो पृथक्तबीतकंक्विारी। अर्थ थकी अर्थान्तर जावै, निज गुण सत्ता माहिं रहा ८० योगथकी योगान्तर गमना, राग दोष मौहादिक बमना । शब्दयकी शब्दातर सोई, ध्यावै शब्दरहित है सोई ॥८॥ न्यंजन नाम शुद्ध परजाया, जाको नाश न कबहुं बताया। वस्तुशक्ति गुणशक्ति अनन्ती, तेई पपय जानि महन्ती ॥२॥ न्यजनतें व्यंजन परि आवे, निज स्वभाव तजि कितहुनाजावै। अति अनुसार लखें निजरूपा, चिनमूरति चैतन्य स्वरूपा !८३॥ जैनसूत्रमैं भाव श्रुनी जो, प्रगट अनुभव ज्ञानमती जो। सो पृथक्कवितर्क विचारा, ध्यावे साधू ब्रह्म विहारा | दोहा-आनि पृथक्त अनंतता, नाम वितर्क सिद्धत । है विचार विचार निम, इह जानों विरतन्त ॥८॥