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जैन-क्रियाकोष
मन वच तन कृतकारित त्याग, कर न अनुमोदन बड़भाग ५४॥ तब त्यागी कहिये श्रुति मांहि, या माहीं कुछ संसै नाहिं। गमनागमन सकल आरम्भ, तज रैनिमें नाहिं अचम्म ॥१५॥ महावीर वर वीर विशाल, दिनों ब्रह्मचर्य प्रनिपाल । निरतीचार विचार विशेष, त्यागै पापारम्भ अशेष ॥५६॥ जैनी जिनदासनिकौ दाम, जिनशासनको करें प्रकाश । जो निशिभोजन त्यागी होंय, छ: मासा उपवासी सोय ॥णा वर्ष एकमैं इहै विचार, जावो जीव लगै विस्तार । ह उपवासनिकौ सुनि वीर, तात निशिभोजन तजि धीर ५८॥ जो निशिकों त्यागे आरम्भ, दिनहूं जाके अलपारम्भ । अब सुनि सप्तम पडिमा धनी, नारिनकू नागिन सम गिनी ॥५६॥ घारयौ ब्रह्मचर्य व्रत शुद्ध, जिनमारगमैं भयो प्रबुद्ध । निशि वासर नारीको त्याग, सज्यौ सकल जाने अनुराग ॥६॥ मन वच काय तजी सब नारि, कृनकारित अनुमोद विचारि। योनिरंध्र नारीको महा, दुरगति द्वार इहै उर लहा ॥१॥ इन्द्राणी चक्राणी देखि, निंद्य वस्तु सम गिने विशेष । विषवासनामैं नहिं राग, जानें भोग झु काले नाग या विषमगनता अति हि मलीन, विषयी अगमैं दीखे दीन । विषय समान न बैरी कोय, जीवनिळू भरमावै सोय ६शा शील समान न सार न कोय, भवसागर तारक है सोय। अब सुनि अष्टम पडिमा मेद, सर्वारम्भ सजे निरखेद ॥६॥ आप करे नहिं कछु मारम्भ, तजै लोभ छल त्यागे बम्म । करवावै न कर सनुमोद, साधुनिकों लखि धरै प्रमोद ५॥