SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 201
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ग्यारा वर्णन। २०१ हरितकायको त्यागी होग, जीवदयाको पालक सोय । सूको फल फोड़या बिन नाहिं, लेवौ जोगिन ग्रंथनि माहि लोन न ऊपरसे ले धीर, लोन हु सचित गिने वर वीर । माटो हात धोयवे कान, लेय अचित्त दयाके काज ।। ४४ ॥ खोरी तथा माटी जो जली, सोई लेय न काची डली। पृथ्वीकाय विरा| नाहि, जीव असल कहै ता मांहि ।।४।। जलकायाकी पाले दया, सर्व जीवको भाई भया। अगनिकायसों नाहिं विरोध, दयावन्त पावै निज बोध ॥ ४६॥ पवन को न करावै सोय, षट कायाको पीहर होय । नाहिं वनस्पति कर विरोध, जिनशासनकी धरै अगोष ॥४॥ विकलत्रय अर नर तिर्यश्च, सबको मित्र रहित परपंच । जो सबिचको त्यागी होय, दयावान कहिये नर सोय ॥४८॥ माप भखे नहिं सचित कदेय, भोजन सषित न औरहिं देय। जिह सचित्तकौ कीयौ त्याग, जीता जीभ तज्यौरसराग | दया धर्म धारयौ तिहि धीर, पाल्यौ जैन बचन गंभीर । अब सुनि छट्टी प्रतिमा संत, जा विधि भाषी वीर महंत ॥५०॥ कै मुहूर्त अब बाकी रहे, दिवस तहा ते अनशन गई। कै मुहूर्त जब चढ़ि है भान, तो लग अनशनरूप बखान ॥५१॥ दिनकों शील धरै जो कोय, सो छठी प्रतिमाघर होय । खान पान नहिं रैनि मझार दिवस नारिको है परिहार ॥५२॥ पूछे प्रश्न यहां भवि लोग, निशिभोजन पर दिनको भोग। शानी जीव न कोई करै, छही कहा विशेष अ धरै ॥५३॥ लाको उत्तर धारौ एह औरनिको प्रत न्यून गिनेह ।
SR No.010271
Book TitleJain Kriya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy