________________
१४२
जैन-क्रियाकोष। तीजी सचितविधान है, ताहि तजौ गुणवान । कमलपत्र आदिक सचित, तिन करि ढाक्यौ धान ॥ ६५ ॥ नहिं देनो मुनिरायको, लगै सचितको दोष । प्रासुक आहारी मुनी, प्रत तप सजम कोष ।। ६६ ।। काल उलंघन दानको, योग्य होत नहिं दान । सो चौथो दूषण भया त्यागे, ते मतिवान ।। ६७ ॥ है मच्छरता पंचमों, दूषण दुखको खानि । कर अनादर दानको, ता सम मूढ न आनि ।। ६८॥ देखि न सके विभूति पर, परगुण देखि सकेन । सहि न सके पर उच्चता, सो भववाम तजै न ।। ६६ । नहिं मात्सर्य समान कोउ, दूषण जगमें आन । जाहि निषेधे सुत्रमे तीर्थकर भगवान ॥ ० । अतीचार ए दानके कहे जु श्रुत अनुसार । इनके त्याग किये शुभा, होवै व्रत अविकार ।। ७१। नमो नमो चउदानको , जे द्वादश व्रत-भूल । भोजन भेपज मे हरण ज्ञानदान हर भूल । ७२ । भोजन दाने ऋद्धि ह वै' औषध रोग निवार । अभेदानते निर्भया, श्रुति दाने श्रुति पार । ७३ । कहे व्रत द्वादश सबै, दया आदि सुखदाय। दान प्रजंत शुभंकरा, जिन करि सब दुख जाय । ७४। एक एक व्रतके कहे, पंच पंच अतिचार । पाले निरतीचार व्रत, ते पावें भव पार ॥५॥ सम्यक बिन नहिं प्रत्त व प्रत विन नहिं वैराग।