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दान समान न मान कोड, जिन मारग माल ५३॥ अतीचार या प्रत्तके, तजे फव्व परकार। तब पावै बूत शुद्धता, लहै धर्म अवतार ५४|| भोजनको मुनि आवहीं, सब जो मूढ़ कदापि । मनमें ऐसी चितवै, दान-करन्ता क्वापि ॥५५॥ लगि है बेला चूकिहों, जगतकाज तें आज । ताते काहूको कहै, जाय करें जग काज ॥५६॥ मो बिन काम न होइगो, तातें जानों मोहि । दान करेंगे भातृ-सुत, इहहू कारिज होहिं ॥५॥ धनको जाने सार जो, धर्म हि जाने रख्छ । सो मूढनि सिरमौर है, घटमे बहुत प्रपंच १५८ कहै भ्राति पुत्रादिको, दानतनों शुभ काम । आप सिधारे जढ़ मती, जग घधाके ठाम ॥५६॥ परदात्री उपदेश यह, दूषण पललो जानि। पराकान है या थकी, यह निश्चय उर आनि ॥६॥ मुनि सम हवे गो धन कहा, इह धार उर धीर। मुक्ति मुक्ति दाता मुनी, षट गायनिके वीर ॥६१॥ फुनि सचित्त निक्षेप है, दूजो दोष अजोगि। ताहि सजे तेई भया, दान प्रतको जोगि॥२॥ सचित वस्तु कदली दला, ढाक पत्र इत्यादि।
तिनमें मेली वस्तु जो, मुनिको देवौ वादि ॥६शा दोष लो जु सचित्तको, मुनिके अचित आहार । वाते सचितनिक्षेपको, त्याग करे त पार ।। ६५ ।