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बारह व्रत वर्णन |
नहीं असंजम सारिखौ, जगत डुवावन हार । नहीं संजमसो लोकमें, ज्ञान बढावन हार ॥ बंचक नहि परपंचसे, ठगे सकलको सोइ । विषैबाना सारिखी, नाहिं ठगौरी कोइ ॥ नहिं त्रिलोकमें दूसरो, तपसो ताप १ निवार । त्रिविध तापसे ताप नहीं, जरा जन्म मृतिधार२ ॥ इच्छासी न अपूरणा, पूरी होइ न सोइ । नहि इच्छा जु निरोधमी, तपस्या दूजा होइ ॥ ४० ॥ त्याग समान न दूसरो, जग जंजाल निवार । नहीं भोग अनुरागसो नरकादिक दातार ॥ नहीं अश्विन मारिखौ, निरभय लोक मंझार । नर परिगरही सारिखौ, भैरूप न निरधार || परिहसो नहिं पापगृह, नहिं कुशीलसो काद | ब्रह्मचर्यमो और नहीं, ब्रह्मज्ञानको बाद || नहीं विषैरम सारिखौ, नीरस त्रिभुवन माहि । अनुभवरस आस्वादमो, सरस लोकमें नाहि ॥ अदयासी नहीं दुष्टता, अनृतसो न प्रपंच | छल नहीं चोरी सारिखौ, चोर समान न टंच (१) हि सकसो नहीं दुर्जना, हरे पराये प्राण | नहीं दयालसो सज्जना, पीरा हरै सुजाण ॥ नहीं विश्वासघाती अवर, झूठे नरसो कोय | नहीं भक्चारीसो बना, -चारी जगमें होय ॥ १ दुःख | २ मृत्यु । ३ कीचड़ ।
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