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जैन-क्रियाकोष। तिक्त कषाय मेलि किय फासू,ताहि अचित्त कहें श्रुतभासू ।। पहर दोय बीते जो भाई, अगणित त्रस जीवा उपजाई । ड्योढ़ तथा पौणा दो पहरा,आगे मनि वरतौ बुधि-गहरा ॥ भात उकाल उष्णजल जो है, सात पहर ही लीनू सो है ! बीतें बसू जाम जल उष्णा,त्रस भरिया इह कहै जु विष्णा ।। विष्णु कहावें जिनवर स्वामी, सर्व बातके अन्तर यामी। या विधि पाणी दिवसें पीवी, निसिफूजल छाडौ मविजीवौ ।। बसन पान अर खादिम स्वादी,निस त्यागे बिन ब्रत सब बादी। क्या बिना नहिं ब्रत जु कोई, निस भोजनमें दया न होई ॥८॥ छाण्यूाय न निसको नीरा, बीण्यूंजाय न धानहु बीरा। छाण बीण बिन हिंमा होवे, हिंसाः नारक पद जोवै॥ अवर कथन इक सुनने योगा, सुनकर धारहु सुबुधि लोगा। नारिनको लागै बड रोगा, मास मास प्रति होहि भजोगा। ताकी किरिया सुनि गुणवन्ता,जा विधि भाषे श्रीभगवन्ता।
दिवस पाच बीतें सुचि होई, पाच दिनालौं मलिन जु सोई॥ सकं च श्लोक-त्रिपक्षे शुद्धयते सूती, रजसापंचवासर ।
अन्यशक्ता च या नारी, यावज्जीवं न शुद्धयते ।। अर्थ-प्रसुता स्त्री डेढ़ महीनेमें शुद्ध होय है, रजस्वला पांच दिवस गये पवित्र होय है अर जो स्त्री परपुरुष सो रत भई सो जन्म पर्यन्त शुद्ध नाही, सदा अशुचि ही है।
बेसरी छन्द पाच दिवसलौं सगरे कामा, तजिकर, रहिवौ एके ठामा। कछु धंधा करवौ नहिं आको, भई अजोग भवस्था ताको ।