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बारह ब्रत वर्णन। इह हमरी बाछा फलौ, सुख पावौ सहु लोइ ॥ सबके हितकी भावना राखे परम दयाल । दयाधर्म उरमें धरो, पावै पद ज, विशाल ॥ थावर पंच प्रकारके, चउबिधि उस परवानि । मबसो मैत्री भावना, सो करुणा उर आनि ॥१०॥ प्रथीकाय जलकायका, अगनिकाय अर वाय । काय बहुरि है बनस्पति, ए थावर अधिकाय ॥ वे इन्द्री ते इन्द्रिया, चउ इन्द्रिय पंचेन्द्रि। ए त्रस जीवा जानिये, भाषे साधु जिनेन्द्रि ।। कृत-कारित-अनुमोद करि, धरै अहिंसा जेह । ते निर्वाण पुरी लहै, चउ गति पाणी देह ॥ निरारम्भ मुनिकी दशा, सहा न हिंसा लेस। छहू काय पीराइरा, मुनिवर रहित कलेश॥ गृहपतिके गृहजोगते, कछु आरम्भ जु होइ । तातें थावरकाय को, दोष लगै अघ सोइ ॥ पै न करे त्रस घात वह मन वच तन करि धीर। त्रस काननको पीहरा जाने परकी पीर ॥ बिना प्रयोजन वह बुधी, थावर हू पे रैन । जो निशंक थावर हने जिनके जिन नीरन । हिंसाको फल दुरगती, दया सुर्ग-सुख देइ । पहुंचाव फुनि शिवपुरे, अविनाशी न करेइ ॥ दया मूल जिन धर्मको, दया समान न और। एक अहिन्सा अन्त ही, सब प्रत्तनिको मौर।।