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जैन-क्रियाकोष । परम शातता उपजै जहा, लहिए आतम भाव जु तहां ।। ५३ ।। मरण काल उपजे जु समाधि, आय प्राप्त है आधिक व्याधि । नित्य अभ्यासी होय समाधि, तौ न नीपज एक उपाधि ॥ ५४॥ जो समाधिर्ते छोडे प्राण, तौ सदगति पावैहि सुजाण ॥ नाहिं समाधिसमान जु और, है समाधि वृत्तनि सिरमौर ॥५५॥
छन्द चाल । अब सुनि सल्लेषण भाई जाकरि सहु व्रत सुधराई। उत्तम अन याकौं भावे, याकरि भवभ्राति नसाव ॥५६॥ जे द्वादश व्रत संजुक्ता, सल्लेखण कारई युक्ता । होवें जु महा उपशाता, पावें सुरसौख्य सुकाता ॥५॥ अनुक्रम पहुंचे थिर थाने, परकी सहु परणति भाने । यह एकहु निर्मलबत्ता, समदृष्टी जो दृढचित्ता ॥१८॥ करई सो सुरपति होने, फुनि नरपति है शिव जावै।
इह मुक्ति मुक्ति दायक है, सब वरानिको नायक है ॥५६॥ सोरठा-मेरौ जो निजधर्म, ज्ञान सुदर्शन माचरण ।
सो नाशक वसु कर्म, भासक अमिन सुभावको ॥६॥ मैं भूल्यौ निज धर्म, भयौ अधर्मा अगविर्षे । तातें बाघे कर्म, कीये कुमरण अनन्त में ॥६१॥ मरि मरि पहुंगति माहि, जनम्यौ मैं शठ भ्राति धर । सो पद पायो नाहिं, जहा जन्म मरण न वै ॥६॥ बिना समाधि जु मण, मर्ण मिटे नहिं हमतनों। यह एकैव सर्ण है सल्लेखण मति गुणी ॥३॥ निज परणतिसों मोहि, एकत करिवे सक है।