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बारह व्रत वर्णन ।
देख्यौ श्रुतिमें टोहि, ठौर ठौर याको जसा ||६४ घरै निरन्तर याहि, अन्तिम सल्लेक्षण परत । उपजे उराम ताहि मरणकाल निहता ॥ ६५॥ करिहों पण्डित मर्ज, किये बाल मर्ज अमित । ले जिनवरको सर्ज, तजिहों काया कारिमा ॥६६॥ जिन माझा अनुसार, अवश्य करोंगो अन्नसन । सल्लेखन व्रत धार, इहै भावना निति घरे ॥ ६७॥ बेसरी छन्द ।
मरण काल धरियेगो भाई, परि याकों नित प्रति चितराई । व्रत अनागत या विधि पाले, या व्रत करि सहु दूषण टाले ६८ मरणो नाहीं भातमतामें, वार्तें निरभै होय रह्या मैं ।
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पर सम्बन्ध अपनी काया, ताका नाता अवश्य बताया |६६| इनका ज्ञान हुए यह जीव, पावे निश्चय सुगति सदीव | मैं अनादि सिद्धों अविनाशी, सिद्धसमानो मति सुखरासी ॥७०॥ सो अनादि कालजुर्ते भूल्यो, परपरणतिके रसमें फूल्यौ । पर परणति करि भयौ सदोषी, कर्म कलङ्क उपार्जक रोषी |०२| जातें देह मनन्ती धारी, किये कुमर्ण अनन्ता भारी ।
माया तें दूवौ ॥७२॥
मैं नहिं कबहूं उपज्यो मूवौ, मैं चेतन मोर्ते भिन्न सकल परभावा, मैं चिद्रूप अनन्त प्रभावा । भयो कषाय कलति चित्ता, मैं पापी अनि ही अपविता ॥७३॥ बहु तन घरिघरि डारै भाई, तन तजिवौ इह मरण कहाई । वार्ते कुमरण मूल कषाया, क्षीण करें ध्याऊ जिनराया 1७४| रागादिक तजि करों सुमरणा, बहुरि न मेरे दोइ कुमरणा ।